कोरोना महामारी से निपटने में इंदौर की 5 समस्याएं व समाधान
ये रही इंदौर की 5 समस्याएं और उनके समाधान, जिन पर समय रहते ध्यान न दिया, तो कोरोना महामारी इंदौर को काले इतिहास का हिस्सा बना देगी।
आज देखता हूं मैं कि एक महामारी ने दस्तक दी और मेरा सुंदर शहर, सबसे स्वच्छ शहर, पूरे मीडिया जगत में देश के सबसे तेजी से बढ़ते महामारी के एपीसेंटर के रूप में पूरे देश में बदनाम हो गया।
जनसंख्या के हिसाब से देखें तो 12 अप्रैल 2020 को 298 पॉजिटिव केसेस के साथ इंदौर प्रति 6,711 लोगों पर एक पॉजिटिव मरीज के आंकड़े पर खडा है, जो डराने वाला है।
120 से अधिक एपिसेंटर / कंटेन्मेंट इलाके हैं, तो क्या इसमें प्रशासन की गलती है या राज्य सरकार की? नागरिकों की या पूरे लचर पड़े सामजिक ढाँचे की पोल खुली है? आईए इसका पोस्टमार्टम करें:
23 मार्च 2020 से इंदौर में लॉकडाउन शुरू हुआ। सोशल मीडिया, अखबार ने खबरें फैला दीं कि कोरोना महामारी दस्तक दे रही है। क्या इंदौर इसके लिए तैयार था?
19.9 लाख की जनसँख्या (2011 के हिसाब से) और लगभग 25 लाख की वास्तविक संख्या वाला शहर, अपने ज़ज्बे के लिए जाना जाता था परंतु इस महामारी के चलते यह देश में कोरोना का इपिसेंटर बन गया। क्यों?
क्या स्मार्ट सिटी इंदौर सोसाइटी के एक मॉडल के नाते फेल हो गया?
सभी जिम्मेदार हैं, सिर्फ प्रशासन नहीं…
पोलिस, प्रशासन, नगर निगम, जनता और जनप्रतिनिधि, ये सब जिम्मेदार भी हैं, और उत्तरदायी भी हैं लेकिन ये ही इसके हीरोज़ भी बन सकते हैं।
क्यों हुआ ये कम्यूनिटी कोलेप्स?
आज इंदौर बंद पड़ा है। न राशन है, न सब्जी, न दवाई, न दूध, और एक भयावह अनिश्चितता हावी है।
एक विशेष कम्यूनिटी और इलाकों के लोगों से शुरू हुई हिंसा के मामले और उसे संभालने में हुई चूक, वहां हुई घटनाओं ने दंड दिया पूरे 25 लाख लोगों को। पत्थर फेंकने वाले ऊंगली पर गिने जा सकते हैं। थूकने वाले, सहयोग न करने वाले कितने हैं?
कुछ इलाके ही न… बाकी 95 फीसदी शहर अपने घरों में बंद है।
महामारी और आपदा नियंत्रण के अलावा बाकी अभियानो में बड़ा अंतर है। शायद चूक यहीं हुई हमसे।
जो काम सुई का था, उसकी जगह तलवार इस्तेमाल में लाए। यह मामला इंसानों का है। उनकी जान-ओ-जिंदगी का है। प्रशासन को इसे संवेदनशीलता के दुशाले में लपेटते हुए अनुशासन के डंडे से संभालना था। जब भी परिवार में सख्ती की जाती है, तो एक बेड कॉप होता है और एक गुड कॉप। यहाँ पर गुड कॉप गायब है।
इंदौर के कोरोना इपिसेंटर बनने के ये मुख्य ५ कारण और उनके समाधान
समस्या नंबर 1: जन प्रतिनिधि व नेता गायब हैं
- क्या इन दिनों अपने पार्षद या विधायक को देखा है? कहाँ गए वो लोग?
- यहाँ बड़ी एबसेंट लगी इंदौर के जन प्रतिनिधियों की, हर पार्टी के नेताओं की अनुपस्थिति रही।
- छुटभैये नेता, पार्षद, विधायक, पार्टियों के अध्यक्ष, जनता के बीच में नहीं है।
- जब वे वोट मांगने आते हैं, देखिये कार्यकर्ताओं से शहर अध्यक्ष तक आपकी तरफ ऐसे मुस्कुराते हैं, जैसे आपका सबसे सच्चा दोस्त हो।
- आज ये सब मैदान से गायब हैं। इनकी नैतिक जिम्मेवारी थी कि ये कलेक्टर, प्रशासन, नगर निगम के साथ खड़े होते। उनकी सोशल ब्रिज बनाने में मदद करते तो शायद मामले इतने नहीं बढ़ते। न कोरोना के, न ही झगड़ों और पत्थरबाजी के।
- ये सभी पटल से गायब हैं और यह काबिले बर्दाश्त नहीं।
- कुछ लोग काम कर भी रहे हैं लेकिन पूरे इंदौर के लिए यह अपर्याप्त है।
- इंदौर भूलेगा नहीं। ये लोग शायद अगला चुनाव अलग तरह से लड़ें और जीतें।
- प्रधानमन्त्री कहते हैं कि हमें राज करने के लिए नहीं, जनता ने सेवा के लिए चुना है। तो कहाँ है इंदौर के सेवक?
समाधान:
- सभी पूर्व पार्षदों, विधायकों को प्रशासन, कलेक्टर के साथ आगे रह कर सहयोग देने आना चाहिए और अपने वार्ड्स / बूथ्स और विधानसभा की जिम्मेदारी संभलनी चाहिए।
- भोपाल से 13 से अधिक अधिकारी बुलाए। उसकी जरूरत नहीं होती और कलेक्टर-कमिश्नर आसानी से स्थितयों पर काबू कर चुके होते। हमारे कलेक्टर तो इन लोगो के साथ काम कर चुके हैं। उनकी सामर्थ्य जानते हैं। कलेक्टर की प्लानिंग का जनप्रतिनिधियों का आपदा की घडी में अपनी टीम के माध्यम से कार्यपालन करना ही हमारी जीत बन सकता है। जनप्रतिनिधियों को इसका राजनैतिक लाभ मिलता सो अलग।
समस्या नंबर 2: डिजास्टर मैनेजमेंट नाम का, हम तैयार ही नहीं
- स्मार्ट सिटी इंदौर तो डिजास्टर मैनेजमेंट के नाम पर पूरी तरह फेल रही। हमारे पास कुछ भी नहीं दोस्तों। कुछ भी नहीं है।
- हमने सिस्टम्स नहीं बनाए, सिर्फ बस स्टेशन, एक्रेलिक के फसाड, सुपर फिशियल लाइट्स हैं। प्रशासन का सिस्टम डंब ही रहा।
- हमारे पास कोई सिस्टम नहीं है। न हमारे पास कोई डिजास्टर मैनेजमेंट प्लानिंग है। न पॉलिसी, न संवाद के लिए प्लेटफ़ॉर्म, न विभागों के बीच तालमेल, न मैपिंग, न वार्ड-वाइज समितियां, न संस्थाओं का समन्वयन।
- हमारे पास न अच्छे सरकारी हॉस्पिटल हैं, न पूरी संख्या में डॉक्टर्स, न बायो-पोलिस है, न सिटीजन फीडबैक सिस्टम, न ग्रीवियेंस सेल, कॉल सेंटर कुछ भी नहीं।
- हमारे पास वॉलेंटियर्स, ट्रेंड रिसोर्सेस, ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट, एम्पैनल्ड संगठन नहीं हैं।
- सबसे बड़ी बात कुछ एक समूहों के अलावा प्रशासन तक पहुँचाने की अप्रोच रोड में बहुतेरे ब्लॉक्स हैं। नहीं तो यहाँ के स्टार्टअप्स, सस्टेनेबिलिटी पर काम करने वाले लोग और मैनेजमेंट के विशेषज्ञ पूरी दुनिया में जाने जाते हैं।
- कुल मिला कर लाईट-पोल्स, डस्ट-बिन्स और एप्स स्मार्ट हैं, नागरिक और प्रशासन नहीं ।
समाधान:
- आज हर नागरिक की एक समस्या है कि कोई फोन नहीं उठा रहा, हमेशा इंगेज मिलता। यह बड़ी समस्या और निराशा में बदल रहा है। इससे विश्वास डगमगा जाता है।
- शहर में बहुत सारे कॉल सेंटर कर्यरत हैं। वे अभी बंद हैं। उनके साथ भागीदारी कर, जो सिर्फ एक नंबर के एंगेज होने की समस्या आ रही है, उससे निजात पाई जा सकती है।
- ये निजी कॉल सेंटर्स अधिग्रहित करके उनके कर्मचारियों को सिर्फ एक या दो दिन की ट्रेनिंग से जनता का मोरल बूस्ट कर सकते हैं। सही जानकारी और मदद पहुंचाने में शासन की मदद कर सकते हैं।
- इससे फेक न्यूज़ और अफवाहें रोकने में मदद मिलती।
- आपदा के दौरान अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के साथ कदमताल करते हुए तत्काल सॉफ्टवेयर, सोशल नेटवर्क के माध्यम से हैंडल करना चाहिए। समाज के साथ संवाद बेहद ज़रूरी है। यह सब इंदौर में उपलब्ध है।
समस्या नंबर 3: जीवन रेखा बंद – राशन, दूध, सब्जियां, दवाई सप्लाई ठप्प
- किसी शहर में नागरिकों का मनोबल और मानसिक स्थिति संतुलित रखना है, प्रशासन को उनसे सहयोग चाहिए, तो नागरिकों की दैनिक उपभोग के सामान की आपूर्ती के साथ समझौता नहीं हो सकता है।
- नगर निगम इंदौर किराना सप्लाई परेशानी से जूझ रहा है। उनके पास लाखों ऑर्डर्स हैं। हज़ारों पेंडिंग हैं।
- अथक काम करने के बाद भी शहर में भावना यह है कि प्रशासन फेल हो गया है।
- कारण यही है कि व्यवस्था पूरी तरह से अनियोजित है। इसे सुनियोजित करना होगा।
- प्रशासन, जिसे योजना बनानी थी, वो क्रियान्वयन में उतर गया है, जो गलत है।
समाधान:
- प्रशासन, जनप्रतिनिधियों को मिल कर सामाजिक संगठनो, एनजीओ, वॉलेंटियर्स और पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ संपर्क कर 2,200 बूथ्स तैयार करने चाहिएं। यह तो वे चुनाव के दौरान रातों-रात बनाते हैं। यह आपदा भी इसी तरह बूथ्स बना कर आसानी से मैनेज की जा सकती है।
- यदि 2,200 बूथ्स युवाओं, सामाजिक संगठनो के वॉलेंटियर और निजी प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टरों के साथ उसी इलाके के राशन और सब्जी वाले के साथ व्यवस्थित हो जाते, तो न पब्लिक परेशान होती, न प्रशासन हलाकान।
- उनका काम होता सिर्फ सोशल डिस्टेंसिंग की ट्रेनिंग और मनिटरिंग करना। स्वास्थय सेवाओं पर ध्यान देना।
- ये वार्ड स्तर पर समस्या हल कर देते। इससे पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप बनती। प्रशासन पर विश्वास बढ़ता। डर की स्थिति कभी नहीं बनती। कारण साफ है कि स्थानीय स्तर पर ही उसे हल कर कर लेते।
- मॉल्स, सुपरस्टोर्स और किराना व्यापारियों कोऑर्डीनेट कर समस्या आसानी से हल हो सकती है। उन्हें खुलने की अनुमति दें। उसकी खबर जनता को दें कि जरूरत का सामान खरीदने की व्यवस्था कर दी है।
- जनता को बताएं कि घर तक सामान पहुँचाने की व्यवस्था है। आपको घर से नहीं निकलना है। सामान आप तक आएगा।
- बूथ स्तर की डिलीवरी से इनका काम आसान और गतिमान हो सकता है।
- जो नंबर अभी जनता को दिए हैं, उनमें से एक भी नही उठ रहा तो यह विफलता ही है।
- भोपाल, जयपुर जैसे शहरों ने यह लाइफ लाइन खोल दी है, जनता में राहत है।
समस्या नंबर 4: निजी क्षेत्र के डॉक्टर, नर्सिंग होम्स, अस्पताल और प्रशासन में तनातनी
- असमंजस की स्थिति है। डॉक्टर्स कह रहे हैं कि हमें काम नहीं करने दिया जा रहा। प्रशासन कह रहा है कि काम नहीं हो रहा। मरीज कह रहे हैं कि उन्हें इलाज नहीं मिल रहा है। यह तो सिर्फ मिस-कम्यूनिकेशन का पुख्ता मामला है।
समाधान:
- अच्छे नागरिकों, पद्मश्री, पत्रकारों का एक पैनल बनाएं। उनके जरिए तत्काल मध्यस्थता करनी चाहिए। वे भी यहां के नागरिक हैं और सहयोग करना चाहते हैं। बस इस आत्मीय बैठक से ही काम बन सकता है।
- प्रशासन को चाहिए की मेडिकल असोसिएशन और डॉक्टर्स से बात करें।
- प्राइवेट डॉक्टर्स को बूथ स्तर पर नियुक्त करें। उन्हें PPE किट्स और मास्क के साथ ही प्राइमरी स्क्रीनिंग किट्स दें। यह मामला हल हो जाएगा। समस्या है ही नहीं, समस्या तो खड़ी की जा रही है।
- कुछ अस्पताल ग्रीन कैटेगरी के हैं। उन्हें सब जगह IEC और कॉल सेंटर के माध्यम से प्रचारित करें।
- यह एक दिन में हो सकता है ताकि मामूली बीमारियों और कोरोना से अतिरिक्त चिकित्सा सहायता और इलाज जारी रहे। जो लोग बूथ से स्क्रीनिंग करवा आए हैं, उन्हें ही यहाँ जाने की अनुमति हो।
- प्रशासन ने जो निजी अस्पताल अधिग्रहीत के हैं, वे नाकाफी और अस्थाई हैं। यह महामारी जल्दी समाप्त होते नहीं दिख रही।
- इंदौर के डॉक्टर्स असोसिएशन को भी आगे आकर प्रशासन के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़े होना पड़ेगा। प्रशासन को भी प्राइवेट प्रेक्टिशनर्स पर भरोसा करना होगा।
समस्या नंबर 5: पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप नहीं दिखती
- सामाजिक संगठन, सामाजिक कार्यकर्ता, समाजसेवक, प्रभावशाली लोगों का नेटवर्क प्रशासन की बड़ी ताकत और मददगार बन सकता है। इनसे संवाद बनाने की दरकार है।
- यदि कलेक्टर चाहें तो पत्रकार इसका बीड़ा उठा कर उनकी मदद कर सकते हैं। शहर का पूरा सहयोग उन्हें मिल सकता है।
- यह खाने-पीने के सामान, राशन सप्लाई, कॉल सेंटर, लोडिंग वाहन, पैसे, बूथ लेवल पर बनाए जा सकने वाले हेल्प सेंटर्स और सोशल ब्रिज, जनसंवाद और सबसे मुख्य बात यह कि लॉकडाउन के कड़ाई से पालन में बेहद उपयोगी होगा।
समाधान:
- इंदौर के सोशल मीडिया इनफ्लूएंसर्स को इस काम में लगाएं। उनसे बात करें। उनके सुझावों पर अमल करें।
- आसपास के बड़े और मंझोले स्तर के किसान अपनी सब्जियां मुफ्त में देना चाहते हैं। इसके लिए भी संगठनो की मदद से बूथ स्तर पर सप्लाई कर प्रशासन न सिर्फ जनता की जिंदगी आसन कर सकता है बल्कि आपदा प्रबंधन का एक सफल इंदौर मॉडल बना सकता है।
- हमारा प्रशासन, अधिकारी, जनता और डॉक्टर्स सभी एक नंबर हैं। हम इस महामारी को हराने में हीरोज़ बन सकते हैं। कृपया कुछ कीजिए…
यह अब भी संभव है। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है।
समीर शर्मा
सायबर कंसलटेंट, मेंटर और पॉजीटिव जर्नलिस्ट
माइक्रोसॉफ्ट, ओरेकल और सिस्को से सर्टिफाइड टेक्नोक्रेट
संपर्क – unitetheworld@gmail.com
समीर शर्मा की फेसबुक वॉल से साभार
Sameerr Sharma, April 12, 2020 at 8:32 AM
लेख में प्रकट विचार लेखक के हैं। इससे इंडिया क्राईम के संपादक या प्रबंधन का सहमत होना आवश्यक नहीं है – संपादक