दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है, हम भी पागल हो जाएंगे ऐसा लगता है – क़ैसर उल जाफ़री
रस्ते भर रो–रोकर पूछा हमसे पांव के छालों ने
बस्ती कितनी दूर बसा ली दिल में बसने वालों ने
यह घटना सन 2010 की है। पटना के एक स्टेडियम में जब मैंने यह शेर सुनाया तो पहली से पिछली क़तार तक ज़बरदस्त तालियां बजीं। वाह-वाह की आवाज़ें बुलंद हुईं और सीटियां भी बजीं।
अपंग बच्चों के सहायतार्थ लाफ्टर कलाकार राजू श्रीवास्तव का शो आयोजित किया गया था।
शो के पहले एक लोकल म्यूजिक बैंड को एक घंटे गीत संगीत की प्रस्तुति देनी थी। बैंड का नाम था ऑनलाइन मौसमी।
आयोजकों ने आशंका जताई कि लोकल कलाकारों को दर्शकगण हूट कर सकते हैं, इसलिए मुम्बई से कोई ऐसा संचालक बुलाया जाए जो लोकल कलाकारों को हूट होने से बचाए।
इस कार्यक्रम के संचालन के लिए जब मैं स्टेडियम के मंच पर पहुंचा तो नज़ारा अदभुत था। स्टेडियम तो खचाखच भरा हुआ ही था कई दर्शक दीवाल पर चढ़ कर बैठे थे और कई बाउंड्री वॉल से लगे पेड़ों के ऊपर विराजमान थे।
दर्शकों की नब्ज़ टटोलने के लिए मैंने एक शेर कोट करने का फ़ैसला किया।
माईक हाथ में लेकर मैं दर्शकों से मुख़ातिब हुआ। मैंने कहा, “प्रिय दोस्तो! मैं बहुत दूर मुंबई से चल कर यहां आया हूं। मुहावरों की भाषा में कहूं तो यहां तक आते-आते पांव में छाले पड़ गए। फिर भी मैं आपके सामने हाज़िर हूं। क्यों हाज़िर हूं, आप इस बात को क़ैसर उल जाफ़री साहब के एक शेर से समझ सकते हैं।”
वहां सन्नाटा छा गया। मैंने शेर पेश दिया:
रस्ते भर रो–रोकर पूछा हमसे पांव के छालों ने
बस्ती कितनी दूर बसा ली दिल में बसने वालों ने
इस एक शेर ने दस हज़ार श्रोताओं के साथ मेरा एक दोस्ताना रिश्ता जोड़ दिया। शेरो-शायरी के दम पर यह संगीत संध्या कामयाबी तक पहुंच गई। इसके बाद लाफ्टर कलाकार राजू श्रीवास्तव की एंट्री हुई। उन्होंने दर्शकों को ख़ूब हंसाया।
क़ैसर उल जाफ़री से मेरी मुलाकात सन 1995 में एक मुशायरे में हुई। उनका क़द छोटा था।
वे कुर्ता पाज़ामा के ऊपर जैकेट पहनते थे। इस लिबास में बिल्कुल किसान दिखते थे।
बरताव में वे इतने सहज, सरल और विनम्र थे कि पहली मुलाकात में ही लगा जैसे उनसे बरसों पुरानी जान पहचान है।
क़ैसर उल जाफ़री मुहब्बतों के शायर हैं। उन्होंने अपनी शायरी में कभी मीनाकारी से काम नहीं लिया।
अपनी शख्स़ियत के अनुरूप उन्होंने सीधे-साधे अल्फाज़ में मुहब्बत के मंज़र पेश किए। उनकी शायरी बड़ी जल्दी पढ़ने-सुनने वालों के साथ अपना जज़्बाती रिश्ता कायम कर लेती है:
न जाने क्या है किसी की उदास आँखों में
वो मुँह छुपा के भी जाए तो बेवफ़ा न लगे
क़ैसर साहब की ग़ज़लें बेहद संगीतमय हैं। इसलिए जगजीत सिंह, पंकज उधास और ग़ुलाम अली से लेकर दुनिया भर के तमाम गायकों ने इनकी ग़ज़लें गाईं। वे बेहद मक़बूल भी हुईं:
दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जाएंगे ऐसा लगता है
हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफ़िर की तरह
सिर्फ़ इक बार मुलाक़ात का मौका दे दे
क़ैसर साहब आसान लफ़्जों में दिल को छू लेने वाली बात कहने में माहिर हैं। देश के अनेक संचालकों ने उनके शेर कोट किए। इस तरह उनके चाहने वालों की संख्या में लगातार इज़ाफ़ा होता रहा। मैं भी अपने संचालन में उनके कई शेर कोट करता हूं। मसलन:
हम आईना हैं दिखाएंगे दाग़ चेहरों के
जिसे ख़राब लगे सामने से हट जाए
झूठी दुआएं भेजीं, झूठे सलाम लिक्खे
उनकी तरफ़ से हमने ख़त अपने नाम लिक्खे
ख़त में दिल की बातें लिखना अच्छी बात नहीं
घर में इतने लोग हैं जाने किसके हाथ लगे
टूटे हुए ख़्वाबों की चुभन कम नहीं होती
अब रो के भी आँखों की जलन कम नहीं होती
कितने भी घनेरे हों तिरी ज़ुल्फ़ के साए
इक रात में सदियों की थकन कम नहीं होती
आम फ़हम ज़बान में कभी-कभी क़ैसर साहब ज़िंदगी की ऐसी तस्वीर पेश कर देते थे कि जिसे देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उनका ऐसा ही एक शेर है:
घर लौट के रोएँगे माँ बाप अकेले में
मिट्टी के खिलौने भी सस्ते न थे मेले में
सलमान ख़ान और गोविंदा की सुपरहिट कॉमेडी फ़िल्मों के लेखक रूमी जाफ़री ने एक दिन गपशप करने के लिए मुझे अपने घर बुलाया।
उन्होंने बताया कि क़ैसर उल जाफ़री साहब उनके ताऊ थे। संघर्ष के दिनों में रूमी जाफ़री ने कुछ दिन मुंब्रा में अपने ताऊ के घर में बिताए थे।
उन्होंने बताया कि एक बार एक निर्माता से मिलाने के लिए क़ैसर साहब बांद्रा आए। हमें बैंडस्टैंड जाना था।
क़ैसर साहब ने कहा के दस मिनट पैदल चलना है। इसके लिए ऑटो क्यों किया जाए। दूरी इतनी थी कि पैदल चल कर बैंडस्टैंड पहुंचने में लगभग एक घंटे लग गए।
रास्ते में एक जगह सब्ज़ी की दुकान दिखाई पड़ी तो क़ैसर साहब ने कहा, “आओ कुछ खाते हैं।”
उन्होंने आधा किलो गाजर खरीदी। दो गाजर मुझे थमाई और राह चलते-चलते गाजर खाना शुरू कर दिया।
रूमीजी ने बताया कि ऐसी हरी-भरी चीज़ें खा-खाकर उनका बदन बेहद मज़बूत हो गया था।
एक्सीडेंट होने के बाद भी उनके जिस्म से जान को जुदा होने में दस दिन लग गए।
चित्रकार दोस्त स्नेह तुली ने मुझसे मशवरा मांगा कि अपने ग़ज़ल संकलन की भूमिका वे किससे लिखवाएं। मैंने क़ैसर साहब का नाम सुझाया।
अपनी शालीनता के अनुरूप वे स्नेह तुली के घर अंधेरी आए। वहीं उन्होंने ग़ज़लें पढ़ीं और वहीं भूमिका लिखकर अपने घर गए।
सन् 2005 में अंधेरी के कामत क्लब में स्नेह तुली के काव्य संग्रह का लोकार्पण समारोह आयोजित हुआ था। उसमें क़ैसर साहब मुख्य अतिथि। वे आयोजन में नहीं पहुंचे। मालूम पड़ा कि उनका रोड एक्सीडेंट हो गया है। कुछ दिनों बाद उनका इंतक़ाल हो गया।
कौसा मुंब्रा के मुहल्ले दौलत नगर में क़ैसर साहब रहते थे। महाराष्ट्र सरकार ने उनका सम्मान करते हुए उस रोड का नाम रख दिया, “क़ैसर उल जाफ़री मार्ग।”
क़ैसर साहब के कई शेर लोगों को ज़बानी याद हैं। आज भी उनकी ग़ज़लें गाई जाती हैं। उनके अल्फ़ाज़ हमेशा हमारे कानों में शायरी की मिठास घोलते रहेंगे।
क़ैसर साहब कभी हमसे जुदा नहीं होंगे। यह भी ग़ौरतलब है कि उनके साहबज़ादे इरफ़ान जाफ़री ने उनकी विरासत संभाल ली है।
इरफ़ान साहब उम्दा शायर हैं। बहुत अच्छी ग़ज़लें और नज़्में कहते हैं और मुशायरों में भी सक्रिय हैं। उनकी अपनी एक अदबी पहचान है।
अंत में क़ैसर साहब के चाहने वालों के लिए उनकी एक ग़ज़ल पेश है:
तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे
तुम्हारे बस में अगर हो तो भूल जाओ मुझे
तुम्हें भुलाने में शायद मुझे ज़माना लगे
जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो
के आसपास की लहरों को भी पता न लगे
वो फूल जो मेरे दामन से हो गये मंसूब
ख़ुदा करे उन्हें बाज़ार की हवा न लगे
न जाने क्या है किसी की उदास आँखों में
वो मुँह छुपा के भी जाये तो बेवफ़ा न लगे
– देवमणि पांडेय
लेखक देश के विख्यात कवि एवं गीतकार हैं।
संपर्क: बी-103, दिव्य स्तुति, कन्यापाड़ा, गोकुलधाम, महाराजा टावर के पास, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव (पू), मुंबई 400063 / +9198210 82126