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दैनिक भास्कर पर छापे पड़े, अच्छा लगा

दैनिक भास्कर के कई ठिकानों पर आयकर विभाग ने छापे मारे। अच्छा लगा। यह काम बहुत पहले होना चाहिए था, क्योंकि हिंदी पत्रकारिता को प्रोडक्ट में बदलकर उसके जरिए बिजनेस बढ़ाने की इच्छा रखने वालों को किसी भी तरह किसी न किसी स्तर पर तो सबक मिलना ही चाहिए। दैनिक भास्कर में मैंने तीन बार काम किया। 1983, 2001 और 2007। तीनों बार अनुभव किया कि इसके मालिक अपना टर्नओवर बढ़ाने के लिए हिंदी पत्रकारिता को बिक्री के सामान के अलावा कुछ नहीं मानते। दैनिक भास्कर के सर्वेसर्वा सुधीर अग्रवाल अमेरिका से एमबीए पढ़कर आए हैं। जब वह पढ़ने नहीं गए थे, तब बड़े-बड़े संपादक दैनिक भास्कर को संभालते थे। सुधीर के पिता रमेश अग्रवाल ने कभी भी संपादक होने का दावा नहीं किया। तब अखबार तरीके से चलता था। सुधीर अग्रवाल के नियंत्रण में आने के बाद संपादकीय विभाग की परिभाषा बदल गई।

दैनिक भास्कर ने जयपुर में कदम रखने के बाद कई गुना आर्थिक विकास किया। अखबार को राष्ट्रीय स्तर पर फैला दिया। सबसे तेज अखबार छापने वाली मशीन लगवा ली। वह सबसे ज्यादा रद्दी का ढेर छापने वाले अखबार में तब्दील हो गया। इधर अखबार का सर्कुलेशन बढ़ता रहा, दूसरी तरफ जमीनें, कमोडिटी, प्रोपर्टी, मिनरल, एनजीओ, कल्चरल एक्टिविटी जैसे धंधे। अखबार में पत्रकारिता के नाम पर भर्राशाही। चुनाव में ज्यादा से ज्यादा रुपए बटोरने की होड़। खबरें रोकने का धंधा। इस तेज बढ़ते अखबार में आज कोई भी ढंग का संपादक नहीं है, जो एक हजार शब्दों का ढंग का सामयिक लेख लिख सके। यहां काम करने वाले कई लोग कटिंग, पेस्टिंग को पत्रकारिता मानते हैं और पेज बनाने वाले कंप्यूटर ऑपरेटर उप संपादक में तब्दील हो गए हैं।

सुधीर अग्रवाल की छत्रछाया में दैनिक भास्कर ने हिंदी पत्रकारिता का बहुत नुकसान किया। उन्होंने योग्यता देखने की बजाय बिजनेस की जरूरत के हिसाब से अपनी हां में हां मिलाने वालों को संपादक बनाया, जिन्होंने बहुत उपद्रव किए। इस समय दैनिक भास्कर के खिलाफ छापेमारी को पत्रकारिता पर हमला बताया जा रहा है, जो कि है और दैनिक भास्कर के मालिक इस वातावरण में भी सहानुभूति अर्जित करने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने सोशल मीडिया पर सेना उतार दी है। दुर्भाग्य का विषय यह है कि सरकार को दैनिक भास्कर की वित्तीय धांधलियां तब दिखी, जब सरकार के बारे में थोड़ी-बहुत खबरें छापना उसके संपादकों की मजबूरी बन गई, या गलती से ऐसे पत्रकार अखबार में भर्ती हो गए, जिनमें पत्रकारिता करने जुनून है। कोरोना से लोग मरे, दैनिक भास्कर ने बहुत पन्ने रंगे। पहली लहर के बाद दूसरी लहर आई और चली गई। अब क्या करें? पाठकों के बीच विश्वसनीयता बनाए रखने का ढोंग करना भी जरूरी है। यही भारी पड़ गया। सामने मोदी सरकार है।

इन आयकर छापों से पहले सन 2000 से लेकर 2021 तक का दैनिक भास्कर का सफर सुधीर अग्रवाल को सफल उद्यमियों की कतार में खड़ा करता है। उन्होंने हिंदी प्रिंट मीडिया इंडस्ट्री में अपना एकछत्र राज कायम करने का प्रयास किया और 50 फीसदी तक सफल भी रहे, लेकिन पत्रकारिता बहुत बदनाम हुई। जहां भी मुद्रा का लालच सीमा पार कर जाता है, वहां कोई भी कार्य ठीक से नहीं हो पाता, क्योंकि हर काम में मुद्रा की आवश्यकता नहीं होती है। शब्दों का मोल मुद्रा से नहीं लगाया जा सकता। साहित्य का क्षेत्र व्यवसाय से अलग है। जिन लोगों ने बड़े अखबार स्थापित किए हैं, वे मूर्ख नहीं थे, जो साहित्य की समझ रखने वालों को संपादक बनाते थे, उनसे सलाह लेते थे और उनके नखरे उठाते थे।

तमाम हिंदी अखबार समूहों में कारोबार संभालने के लिए जो नई पीढ़ी आई है, सुधीर अग्रवाल उनके प्रतिनिधि हैं और उनसे लगभग सभी हिंदी अखबार समूहों के मालिकों के बच्चों ने प्रेरणा ली है। कई अखबारों ने तो दैनिक भास्कर की नकल करने के चक्कर में अपने रंग ढंग ही बदल दिए। इस तरह मैंने हिंदी अखबारों को बिकने वाले पोस्टरों में बदलते देखा है। अगर सुधीर अग्रवाल प्रोपर्टी और टर्नओवर के चक्करों में नहीं पड़े होते और समझदार संपादकों को नियुक्त करते तो उन्हें ये दिन नहीं देखने पड़ते और हिंदी पत्रकारिता को सहारा देने वालों के रूप में प्रतिष्ठित होते, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।

सुधीर अग्रवाल ने श्रवण गर्ग और कल्पेश याग्निक जैसे खूंखार लोगों को संपादक नियुक्त किया जो मनुष्य को मनुष्य नहीं समझते थे। सर्कुलेशन बढाने और उसके आधार पर मीडिया में बड़ी ताकत बनकर तमाम धंधों में टांग फंसाने का नतीजा कभी न कभी तो भुगतना ही था। यह कार्य ऐसे समय हुआ है, जब सरकार पत्रकारों का आखेट करने में लगी है। ऐसे में दैनिक भास्कर को शहीद का दर्जा मिलेगा। यह छिपने वाली बात नहीं है कि दैनिक भास्कर के मालिकों को उस समय गुजरात में जमीन मिली थी, जब नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री थे। वहां से दिव्य भास्कर निकला। इसके बाद मराठी संस्करण शुरू हुआ। भोपाल में वे क्या कर रहे हैं, यह भी सभी जानते हैं। आज उत्तर प्रदेश को छोड़कर पूरे हिंदी बेल्ट में दैनिक भास्कर प्रिंट मीडिया का सबसे बड़ा ब्रांड है।

दैनिक भास्कर के मालिकों के यहां छापेमारी उस समय हुई है, जब वे सैकड़ों पत्रकारों का वेतन हजम कर चुके हैं। वे पत्रकार के नाम पर हिंदी लिखने-पढ़ने की योग्यता रखने वालों का तेल निकालने में सिद्धहस्त हैं। उनके दफ्तर में काम करने वाले कई पत्रकारों की जिंदगी बर्बाद हो चुकी है। कई पत्रकारों का करियर बर्बाद हो चुका है। मैं इस सिलसिले का भुक्तभोगी हूं, इसलिए साफगोई के साथ लिख रहा हूं कि सुधीर अग्रवाल को एक बात समझनी चाहिए कि जिनके खुद के घर शीशे के होते हैं, उन्हें दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेंकना चाहिए। वह एक प्रोडक्ट का बिजनेस कर रहे हैं और पत्रकारिता कभी भी प्रोडक्ट का बिजनेस नहीं हो सकती। अगर दैनिक भास्कर अपने 20 साल पुराने वाले तेवर ही बरकरार रख पाता, तो यह नौबत नहीं आती। सरकारी एजेंसियों की हिम्मत हर किसी के यहां इस तरह छापेमारी करने की नहीं होती, वह भी एक बड़े अखबार के यहां।

यह छापेमारी दैनिक भास्कर के साथ एक दुर्घटना है, जिसके नतीजे में यकीनन कुछ पत्रकार नपेंगे, ट्रांसफर होंगे, छंटनी होगी और फिर ऐसे पत्रकारों की तलाश होगी, जो मालिकों की कमाई की लाइन को समझते हों। आपातकाल के समय इंदिरा गांधी के समय भी इंडियन एक्सप्रेस पर छापेमारी हुई थी, लेकिन इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका थे, जिन्होंने कभी भी फालतू और खूंखार लोगों को संपादक नहीं बनाया। आज रामनाथ गोयनका खुद पत्रकार नहीं होने के बावजूद पत्रकारिता के क्षेत्र में एक चमकता हुआ नाम है। सुधीर अग्रवाल की तुलना रामनाथ गोयनका से नहीं की जा सकती। उनके हिंदी अखबार में तो संपादक अपनी मर्जी से कुछ लिख ही नहीं सकते। उनके अखबार में पत्रकारों को कंप्यूटर ऑपरेटरों के निर्देश पर काम करना पड़ता है। सुधीर अग्रवाल ने बहुत रायता फैला लिया है। समेटना बहुत मुश्किल हैं। उनके ग्रुप में तो घोटालों का जखीरा है। एक ही छत में काम करने वाले लोग भी अलग-अलग कंपनियों के तहत वेतन लेते हैं। गणित के दुरुपयोग का नतीजा तो भुगतना ही पड़ेगा।

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