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Books: लाश: उपन्यास अंश… दत्तात्रय लॉज: लेखक – विवेक अग्रवाल

“हो रे बाबा, ये पटकन।” बाबू भाई ने शांत भाव से दांत कुरेदते हुए फोन रखा। कुर्सी से उठ कर मुकेश के कमरे की तरफ चले। गलतफहमी में न रहें, सुबह हो चुकी है।

मुकेश के साथ वाले आए थे, बताए कि मुकेश उठ नहीं रहा है। उसका शरीर भी ठंडा है। सांस नहीं चल रही है।

बाबू भाई के लिए ये रोजाना की बात है। न जाने कितने जिस्म ये फिलम इंडस्ट्री खा गई ऐसे ही। आज एक और सही। मुनसीपाल्टी में फोन किया है। गाड़ी आएगी। लाश ले जाके घासलेट डाल के जला देगी।

चलो छुट्टी हुई। ये मुकेश भी ना, 19 साल से एक ही खाट पकड़ के बैठा था। 30 रुपए महीना पे आया था, अभी 250 रुपए पे था। चलो, ये गया तो 500 में खाट जाएगी।

बाबू भाई ने चैन की सांस ली और काऊंटर के पीछे कुर्सी पर आकर बैठे, पास लगे टेबल फैन का खटका दबा दिया। मुंबई की ऊमस से अब जाकर राहत मिली, “देवा रे, देवा।”

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