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असल पत्रकारों का ज़माना आ गया!

निरुक्त भार्गव, वरिष्ठ पत्रकार, उज्जैन

बीते दिनों जब मैं उज्जैन के श्री महाकालेश्वर मंदिर से जुड़ी अव्यवस्थाओं पर अपनी तमाम पोस्ट के माध्यम से लोगों का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास कर रहा था, तो उसी दौरान व्यवस्था से जुड़े एक जिम्मेदार बाबू ने जोरदार प्रतिक्रिया दी थी. उन्होंने कहा, “आलोचना हमेशा सबसे सस्ता तरीका है, अपनी बुद्धिमत्ता दिखाने का. रचनात्मक सुझाव पत्रकारिता की पहली शर्त है. आपकी लेखन शैली और भाषा बहुत अच्छी है. आप अच्छे लेखक हो सकते हो, पर अच्छे पत्रकार बिल्कुल नहीं. आपको सभी के प्रदर्शन को नापने-तौलने का हक है तो  थोडा-बहुत सामान्य जनता को भी है, आपके कार्यों को जज करने का हक.”

व्यतीत 15 अगस्त को इस तरह मिला सबक मुझे खला जरूर, पर मैंने भी उक्त महोदय को भरोसा दिलाने की चेष्टा की कि मैं मेरी कमियों को अवश्य दूर करूंगा और कोशिश करूंगा कि एक अच्छा और सच्चा पत्रकार बनूं! बहरहाल, अब मुझे अहसास हो रहा है कि अपन-तो फालतू-ही पत्रकारिता पेशे में हैं और 25-30 वर्षों में लगातार भिड़े रहने के बावजूद असफलता को ही गले लगा सके! ना मकान-ना दुकान, ना टेम्पो-ना कार, ना कोई कारोबार-ना कोई बैंक बैलेंस!

भला बताइए, मौजूदा दौर में मेरे जैसे शख्स को कौन ‘असली पत्रकार’ मानेगा? यानी मेरे जैसे लोगों की जमात तो नकली पत्रकार होने का सर्टिफिकेट लेकर गई, भाड़ झोंकने!

अब बात करते हैं, उन असल पत्रकारों की जिनका इन दिनों दौर चल रहा है: ना शैक्षणिक अहर्ता का पता है, और ना क्रिमिनल रेकॉर्ड्स का! किस मीडिया संस्थान में ये भाई और मैडम काम करते हैं, उसकी मालूमात और पड़ताल करने की हिम्मत ना तो शासन-प्रशासन के पास है और ना ही पुलिस के पास! मगर ये संपर्क बनाने और फिर माल कमाने वाली वास्तविक पत्रकारों की एक तरह की नई और कामयाब सेना है!

सरकारी अस्पतालों, पुलिस थानों, आरटीओ-खाद्य-खनिज-आबकारी-रजिस्ट्रार इत्यादि विभागों की रिपोर्टिंग करने के इनके कौशल और करतबों के चलते ये सबकी आंखों के तारे होते हैं! नेता-अभिनेता, व्यापारी-व्यवसायी, बिल्डर-कॉलोनाइसर, जरायम पेशों में लिप्त लोगों और धार्मिक चोला ओढ़ने वाले आडम्बरियों सहित नाना प्रकार की काली कमाई करनेवालों और करनेवालियों से तो इनकी गहरी छनती है!

खुद-की टकसाल में अपने समय की मुद्रा ढालने वाले इन महावीरों का जगह-जगह वंदन-अभिनन्दन-स्वागत करने की जिम्मेदारी समूचे समाज की बनती है! इनको इस बात का पूरा-पूरा श्रेय दिया जाना चाहिए कि इन्होंने मीडिया (पत्रकारिता) के धब्बों उर्फ खोटे सिक्कों उर्फ असफल पत्रकारों उर्फ नकली उर्फ दिखावटी पत्रकारों को (किसी मुद्रा की तरह) चलन से ही बाहर कर दिया है! बल्कि, इन्हें तो समस्त प्रतिष्ठित अवार्ड्स और मेडल्स और मान्यताओं से अलंकृत करने की आवश्यकता है क्यूंकि इन पट्टेधारियों-माइक आईडी धारियों और लैपटॉप धारियों ने असली मीडिया संस्कृति को स्थापित किया है!

शी…शी…! आप मेरी बातों को अन्यथा मत समझना. ये जानने की जुर्रत तो कतई मत करना कि शासन ने इन जेन्युइन पत्रकारों को पदार्पण के एक-दो साल में ही अधिमान्यता, बीमा योजना, आवास योजना वगैरह से क्यों नवाज दिया?

यदि आपके मन में बार-बार ये प्रश्न कौंध रहे हैं कि इन करामातियों ने किस तरह पत्रकार संगठनों में चार चांद जड़ दिए, तो ऐसे ऐतिहासिक कौतुहल को तिरोहित कर देना!

सावधान: आप या कोई भी सरकारी एजेंसी गहरे संकट में पड़ सकती है यदि वो जांच का जोखिम उठाए कि पत्रकारिता के इन रियल-टाइम झंडाबरदारों ने बिना बीमार पड़े कैसे शासकीय सहायता ले ली और समाज ने बिना ये अनुभव किए कि फील्ड-रिपोर्टिंग में कौन सक्रिय था,  उन्हें कोरोना वॉरियर्स के ख़िताब से सम्मानित कर दिया…?

इन शाश्वत कर्णधारों को बारम्बार प्रणाम!

लेखक उज्जैन के वरिष्ठ पत्रकार हैं। विगत तीन दशकों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। संप्रति – ब्यूरो प्रमुख, फ्री प्रेस जर्नल, उज्जैन

(उक्त लेख में प्रकट विचार लेखक के हैं। संपादक मंडल का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।)

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