Vivek Agrawal Books

Books: मुंभाई रिटर्न्स: मुंबई अंडरवर्ल्ड का प्रामाणिक दस्तावेज

सबके जहन में एक सवाल उठता है कि क्या माफिया के रक्तरंजित अतल समंदर के रहस्यों की परतें भेदना संभव है?

उत्तर है – हां / नहीं।

दोनों एक साथ कैसे हो सकता है भला! सच तो यही है कि जो जानकारी पता चल गई तो वह रहस्य रह ही कहां गई। जो नहीं पता चला, उसके लिए तो नहीं कहना ही पड़ेगा। मुंबई माफिया के ऐसे अनेको तथ्य हैं, जो अनसुने, अनदेखे, अनजाने और अचिन्हे रह जाते हैं। कुछ टुकड़ों-टुकड़ों में अपराध संवाददाताओं या खोजी पत्रकारों द्वारा अथक प्रयासों से आप तक पहुंचते हैं। ऐसे में ‘अंडरवर्ल्ड – स्याह सायों का संसार’ सामने आने के बाद यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि ‘अंडरवर्ल्ड – स्याह सायों के रहस्य’ में क्या होगा।

ऐसे बहुतेरे विषय हैं, ऐसी ढेरों जानकारियां हैं, ऐसे असंख्य आंकड़े हैं, ऐसे काफी तथ्य हैं, जो इस पुस्तक में समाहित करने की कोशिश की है। हर पुस्तक की अपनी एक समस्या होती है कि उसकी पृष्ठ संख्या सीमित रखनी होती है। ऐसे में काफी जानकारियां यहां नहीं समेट पाया। वे इस श्रृंखला की तीसरी पुस्तक ‘अंडरवर्ल्ड – स्याह सायों के साथ’ में समाहित होनी हैं।

गिरोहों की आपसी रंजिश और मारकाट से परे भी एक संसार है, उनके ऐसे कुछ विषय हैं, जिन तक पहुंचना संभव नहीं होता। यही तो रहस्य है। कल्पनातीत और दुरूह जानकारियां ही तो रहस्यों की जनक होती हैं।

किसी संत से एक जिज्ञासु ने पूछा कि क्रोध क्या है?

संत का उत्तर था कि मानव मन की वह स्थिति, जिसमें मानव यह माने कि वह सामने वाले का अहित कर रहा है, लेकिन सत्य यह है कि वह स्वयं का नुकसान करता है, यह भाव ही क्रोध है।

…और यही भाव समाज के इन पथभ्रष्ट व स्खलित नायकों का भी है। वे भी इसी भाव से जीते हैं कि बदले की आग में वे दूसरे का नुकसान कर रहे हैं लेकिन सत्य का दूसरा पहलू यह भी है कि वे स्वयं और उनके समस्त परिजन भी इस अग्नि में जलते हैं। एक भाव मेरे मन में सदा रहता है कि कभी ऐसा कोई युवक इन भटकते प्रेतों के संसार में न पहुंचे, न उनका अंग बने, न उनका कर्म अपनाए। वह सफल हो तो एक मानव के रूप में, दानव के नहीं।

अध्याय

गुंडों की नाम कहानी (गुंडों के उर्फ नामों पर)

डी, लंगड़ा, रावण, हड्डी, मच्छी, कुत्ता, वांग्या, मिर्ची, वड़ा पाव… एक सामान्य व्यक्ति के लिए ये अलग-अलग वस्तुएं-सामान-जीव होंगे लेकिन माफिया व पुलिस हेतु इनका मतलब जीते-जागते इंसानों से है। ये गुंडों के फर्जी नाम हैं जो उनकी असली पहचान हैं। गुंडों के असली नाम गुम हो चुके हैं। वे ऐसे विस्मृत हैं कि असली नाम से मिलने आ जाएं तो कोई पहचाने नहीं। इन नामों की समाज में दहशत है। पुलिस-खुफिया एजंसियों के लोग भी कई बार गुंडों के असली नाम पूछने पर वे अचकचा जाते हैं। काले संसार में किसको, कब, कैसे, क्यों ये नाम दिए जाते हैं, जानना दिलचस्प है।

महिलाएं और माफिया (अपराधों में महिलाओं का योगदान)

बिना महिलाओं के माफिया बन सकता है, यह सोच नहीं सकते। इसमें महिलाओं की भूमिका कितनी सशक्त है, उसका उदाहरण जिनाबाई खबरी से ‘सामान वाली दादी’ तक… मीनाक्षी अग्रवाल से लक्का तक है। उनको जो अबला कहे, वह भुलावे में है। वे सौंदर्य और मादक शरीर को भुनाती हैं, लालच के मारे गिरोहों हेतु हर काम करती हैं जिससे कोई भी दूर रहना पसंद करेगा। माफिया में अनेक महिलाएं हैं जिन्होंने स्याह संसार के काले पक्ष को अधिक सियाही बख्शी। ऐसी महिलाओं चेहरे पर पड़ा नकाब हटना पसंद नहीं करतीं। कोई ऐसा करे तो उसके खिलाफ किसी भी हद तक जा सकती हैं।

बारबालाओं का साथ

मुंबई के डांस बारों में एक तरह का जिन्न पलता था। अपराध का जिन्न। उन जिन्नों की बोतलें थीं यहां की खूबसूरत रक्कासाएं… जिन्हें हम बारबालाओं के नाम से जानते हैं। ये मृत्यु के प्रेत बीयर बालों की अंधियाली गलियों और कमरों में, मद्धम लेकिन चमकीली रौशनी की कलाबाजियों वाले नृत्यसभागृहों तक, खुद को छुपाए रहते थे। उन्हें कभी पैसों का लालच देकर तो कभी इश्क के फरेब में उलझा कर स्याह सायों के संसार का हिस्सा बना लिया। बारबालाओं से उन्होंने हर किस्म का काम करवाया। इन हिंसाजीवियों के लिए ये बदकिस्मत लड़कियां मुखबिर बनतीं, लोगों को रिछा कर फंसा कर अपहरण करवातीं, गोलीबारी में कवच का काम करतीं, हथियार, नकदी और नशा पहुंचाने का काम करतीं… और भी न जाने क्या-क्या करतीं। इन बारबालाओं के घुंघरुओं की छुनछुन से पिस्तौलों से निकली धांय-धांय तक की तमाम तफसील यहां है।

बमबाजों से बदला / बमकांड आरोपियों पर बरसता कहर (राजन द्वारा मारे गए आरोपी)

राजन ने बमकांड आरोपियों की हत्या कर जो चुनौती पुलिस और दाऊद को दी, उस पर अभी भी अड़ा है। अब तक आठ आरोपियों को मारा है। उसके निशानेबाजों से गलती न होती तो ओशिवारा में एक और आरोपी मारा जाता। हमलावर दस्ते ने एक निर्दोष युवक को मार दिया। कल तक आरोपी जमानत पाने के लिए कुछ भी कर रहे थे, वे जेल में खुद को सुरक्षित पाने लगे। राजन ने मारकाट मुहिम जारी रखी जिससे आरोपियों में आतंक छाया है। राजन-दाऊद गिरोह में रक्तरंजित परोक्ष युद्ध की दास्तान में और अध्याय जुड़ते जा रहे हैं।

शिवसैनिकों का शिकार

शिवसेना और माफिया में अजब खींचातानी और रहस्यमय संबंध है। अब तक मुंबई में जितने राजनीतिक मरे, सर्वाधिक शिवसैनिक हैं। पुलिस कहनी है कि शिवसेना के तीखे हिंदूवादी तेवरों के अलावा कुछ ऐसा है जो उसके सदस्यों और नेताओं की हत्याएं करने के लिए माफिया को उकसाता है। मुस्लिम माफिया के खिलाफ हिंदू माफिया खड़ा करने वाली शिवसेना को अंततः अपनी आस्तीन में पाले सांप ने डंसा। यह सच हुआ कि अपराधी सदा अपराधी रहता है, वह हिंदू या मुसलमान नहीं होता, लाल या हरे परचम तले काम नहीं करता, विचारों से अधिक स्वार्थ से चलता है। यही कारण है कि शाखा-विभाग प्रमुखों, नगरसेवकों, विधायकों और शिवसेना प्रमुख के करीबी मित्रों की हत्याएं माफिया ने कीं। कईयों की हत्या के रहस्य आज भी कायम हैं।

छुरे से एके छप्पन तक (माफिया द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले हथियार)

मुंबई माफिया पुरानी फिल्मों के चाकू चलाते गुंडों जैसा नहीं रहा। माफिया के पास मारक, संहारक और तेज हथियारों का ऐसा जखीरा है कि पुलिस भी पानी भरे। पुलिस भले दावा करे कि उसके पास बेहतर हथियार हैं लेकिन गिरोहों से बेहतर, अत्याधुनिक और स्वचालित हथियार उनके लिए स्वप्न है। मुंबई में एक वक्त था कि रामपुरी चाकू निकलता तो भगदड़ मच जाती थी। आज अपराधी एके 56 का इस्तेमाल करते हैं, कोई परेशान नहीं होता। चाकू से एके का सफर, असलाह के भाव, उपलब्धता, मिलने वाले स्थान, हथियारों का इतिहास, हथियारों की रोकथाम में पुलिस की असफलता, गिरोहों व छोटे अपराधियों द्वारा इस्तेमाल होने वाले हथियारों का विश्लेषण, हथियार तस्करी चैनल, हथियारों का किराए पर मिलना जैसे बिंदु उभारे हैं।

गिज्मो गैलरी (नवीनतम तकनीक के प्रति माफिया की दीवानगी)

‘मुंबई पुलिस का आधुनिकीकरण होगा’, ‘मुंबई पुलिस हेतु अत्याधुनिक हथियारों के लिए करोड़ों रुपए मंजूर’, ‘पुलिस को अत्याधुनिक वाहन दिए’, ‘गिरोहों से लड़ने हेतु पुलिस को अत्याधुनिक तकनीक से सज्जित किया’… इन सुर्खियों के पीछे छुपा मर्म है कि माफिया से निपटने के लिए आधुनिक तकनीक चाहिए। कारण? शत्रु आधुनिक व संहारक तकनीक से लैस है। माफिया को पैसों की कमी नहीं, संसाधन जुटाने के लिए किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना है, उनकी मुट्ठी में सारा संसार है। ऐसे में सेट फोन से एके 56 तक की कल्पना नहीं करनी है, ये सब उनके पास पहले से हैं। पुलिस को अलबत्ता इनकी जरूरत है, ये अब तक उनके पास नहीं हैं।

खबरियों की खबर (माफिया और पुलिस मुखबिरों के संसार पर)

क्यों कोई बनता है खबरी? खबरी क्यों जानलेवा सौदा करते हैं? क्यों गिरोहबाजों के तंत्र को नष्ट करना चाहते हैं? सवाल आसान हैं, जवाब जटिल। खबरियों का संसार विस्तृत है। उससे काम के नुक्ते चुनना भी आसान नहीं। खबरियों के संसार में झांकने से पहले उनकी जानकारी जरुरी है। खबरी बनने के पीछे की कहानी क्या है? कोई खबरी बन कर क्या पाता है? खबरी बनने के बाद लोग क्या करते हैं? जिस तरह माफिया की ‘कबड्डी’ में ‘खो-खो’ की मिलावट है, उसमें खबरियों का खिलाड़ी होना जरूरी है। यहां मचे घमासान में खबरियों का साथ न मिले तो गिरोह कुछ नहीं कर सकते, पुलिस व खुफिया एजंसियां भी।

मुठभेड़ : कितना सच-कितना झूठ

मुंबई पुलिस व्यावसायिकता, गतिशीलता, बुद्धिमत्ता, तीव्रता, सहयोग भावना के कारण दुनिया में सराही जाती है। आज तक सैंकड़ों गुंडों को मुठभेड़ों में उड़ा चुकि पुलिस पर प्रश्नचिह्न लगते हैं। हर बार ऐसा कुछ होता है कि पुलिसकर्मी अपनी ‘सनातन मूर्खता’ सिद्ध करते हैं। उन्हें लगता है कि कोई उनके तौर-तरीकों पर सवाल उठाने का दुसाहस नहीं कर सकता। वे गुंडों को मुठभेड़ों में, जो अमूमन फर्जी होती हैं, मारते हैं, तो गलत नहीं क्योंकि इसे ‘इंस्टेंट जस्टिस’ कहते हैं। उनके तरीके से तानाशाही की बू आती है। मुठभेड़ों के सच-झूठ तौलने-परखने की कोशिश का विरोध भी खूब होता है।

अंधेरे की राजदार भाषा (माफिया की कूट भाषा)

ऐसा जासूसों या सैन्यकर्मियों के बीच ही नहीं कि वे रहस्य छुपाने हेतु कूटभाषा का इस्तेमाल करें। माफिया के बीच यह आम है। वे जब कहें ‘कौव्वा’ तो मतलब ये नहीं कि वे उस पंछी की बात कर रहे हैं जो हमेशा कांव-कांव करता दिखता है। न जाने कितने बहुरूपिए शब्द हैं जो अंधियाले संसार में प्रचलित हैं और संदेश देने-लेने का जरिया हैं। न जाने कितने शब्द हैं जिनके सामान्य से अलग ऐसे मतलब हैं जो किसी को भी चौंका दें। हर दिन, हर पल बदलने वाली इस भाषा का पक्का स्वरूप नहीं है। काली दुनिया का एक और राज फाश करने की कोशिश है।

टाडा : सत्य और कथ्य

टाडा का आतंक आतंकफरोशों पर कितना रहा, इसकी सबसे अच्छी मिसाल मुंबई में मिलेगी। पुलिस के लिए टाडा ऐसा हथियार था जो कभी असफल न हुआ। टाडा में पचासों गुंडों-सरगनाओं को पकड़ कर जेलों में ठूंस दिया। अपराधियों में इसकी दहशत ऐसी थी कि सभी भागे-भागे फिरते। जैसे ही टाडा खत्म हुआ, मुंबई में अपराध का बाजार गर्म हो गया। यह बात और है कि सजा कम को हुई। टाडा का राजनीतिक विरोध ऐसा हुआ कि वह ‘काला कानून’ हो गया। टाडा को लेकर भारी हाय-तौबा मची। जिन्होंने विरोध किया, उनके राजनीतिक या पेशेवर स्वार्थ थे; जिन्होंने पक्ष लिया वे निश्चित तौर पर जांच अधिकारी या सत्तारूढ़ दल के थे। विरोध अपराधियों और आतंकवादियों को कड़ी सजा और जमानत न मिलने के कारण ही हुआ। माफिया ने धनबल से इसके विरुद्ध तगड़ी राजनीतिक खेमेबंदी की और अल्पसंख्यकों का मुद्दा बना कर खत्म करवाने में सफल रहे। टाडा का दुरुपयोग हुआ या सदुपयोग, टाडा इतिहास, आंकड़े, बहस और अन्य बिंदू छूएं।

BOOK LINK

Leave a Reply

Web Design BangladeshBangladesh Online Market