Vivek Agrawal Books

Books: मुठभेड़: दुर्दांत डकैत घनश्याम केवट उर्फ घनसू डकैत से 59 घंटों की खौफनाक मुठभेड़ पर आधारित उपन्यास

उत्तरप्रदेश के चित्रकूट जिले का गांव जमौली। एक आम भारतीय गांव। अचानक पूरी दुनिया की निगाहों का मरकज बन गया। कारण था दुर्दांत डकैत घनश्याम केवट उर्फ घनसू उर्फ नान डकैत उर्फ बग्गड़ की 59 घंटों तक पुलिस के साथ चली मुठभेड़। इस खौफनाक मुठभेड़ में कई पुलिस अधिकारी शहीद हुए। कई घायल हुए। पुलिस को तमाम आलोचनाएं झेलनी पड़ीं। तारीफ भी कम न हुई।

इस सत्य घटना पर आधारित कृति तैयार करने के लिए खासा शोध किया है। यह कहानी न डकैतों की है, न पुलिस वालों की। न अपराधियों की, न शहीदों की। न सम्मान की, न अपमान की। यह कहानी है नजरिए की।

हर व्यक्ति का अपना दृष्टिकोण है। याने अपना चश्मा। हर इंसान एक ही घटना अलग-अलग कोण से देखता है। उसका विश्लेषण करता है। उस पर बात-बहस करता है। निष्कर्ष निकालता है। मुठभेड़ में भी यही फर्क दिखता है। डकैत, पुलिस अधिकारी, पत्रकार, एंकर, पत्नी, बेटी, रिश्तेदार, नागरिक, मुखबिर, खोमचे वाले, गरज यह कि हर व्यक्ति का नजरिया एक ही मुठभेड़ पर कितना अलग दिखता है।

भारत में डकैत बनने की कहानियां हमेशा गरीबी और अमीरी के बीच खाई से पैदा होती हैं। चाहे वह डाकू वाल्मिक हो या मलखान सिंह, चाहे फूलन देवी हो या सीमा परिहार, भारत में जब डाकुओं की बात होती हैं, उन पर हुए अत्याचारों से बागी बनने की दास्तां ही सामने आती है।

हिंदुस्तान में डकैत का मतलब बागी है याने समाज से बगावत कर बीहड़ों में जा धंसा मजलूम। उसे समाज ने प्रताड़ित किया तो वह समाज से बदला लेगा। कितनों को पता है कि उनके बीहड़ में बने रहने के पीछे कई-कई कारण होते हैं। सभी कारणों की पड़ताल और उद्घाटन भी इस रचना का उद्देश्य है।

घनसू की मुठभेड़ के पीछे गहरा राजनीतिक कारण भी रहा है, जिसका उद्घाटन इस किताब के जरिए होता है।

नाम भले ही बदले हैं लेकिन तत्कालीन राजनीतिक घटनाक्रम पर नजर डालें तो साफ पता चल जाएगा कि किसने इस मुठभेड़ के लिए आदेश दिया था। क्यों दिया था? कारण क्या था? मुठभेड़ ही क्यों की, समर्पण क्यों नहीं करवाया? उसके पीछे क्या वजह थी? हर सवाल का जवाब इस कथानक में सामने आता है।

दुर्दांत डकैत घनश्याम केवट उर्फ घनसू उर्फ नान डकैत उर्फ बग्गड़ से पुलिस की 59 घंटों की खौफनाक “मुठभेड़” का सजीव चित्रण।

कथा

घनसू अपने गिरोह के साथ गांव जमौली एक शादी में पहुंचा, जहां उसने नाचने वाली का बल्त्कार करने पर आमादा एक बंदे को पीट कर भगा दिया। उसने गुस्से में पुलिस को घनसू के गांव में होने की सूचना दे दी। एसपी राणा दल-बल समेत गांव को घेर कर बैठ गए।

डीआईजी को तत्कालीन मुख्यमंत्री ने कहा कि घनसू को अब किसी भी हाल में बचना नहीं चाहिए। वह मारा गया तो आप ईनाम के हकदार होंगे। लगातार तीन दिनों तक घनसू को मारने की कोशिश चलती रही।

इस बीच उसे बचाने के प्रयास ठेकेदारों से लेकर नेताओं तक सबके बीच चलने लगे। इस दौरान कई पुलिस वालों को एक रायफल और ढेरों हिम्मत के सहारे घनसू ने या तो मार गिराया, या घायल कर दिया। इस बीच घनसू की पत्नी ने मंदिर में बलि भी चढ़ाई।

घनसू के साथी और बहनोई ने उसे गांव के बाहर निकालने की योजना बनाई। जब वह गांव से निकलने की कोशिश करने लगा, तभी कुछ पुलिस वालों ने उसे देख लिया और घेर कर गोली मार दी। इस तरह एक और कथित बागी का अंत हो गया, जिसे समाज ने ही बगावत की राह दिखाई थी।

BOOK LINK: Muthbhed

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