Vivek Agrawal Books

Books: कश्मकश… अंडरवर्ल्ड का धाराप्रवाह जीवंत सत्य साहित्य ‘रक्तगंध’!

शकील अख़्तर

लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार

एक सांस में 40 पेज पढ़ गया। ऐसा धाराप्रवाह लेखन कम ही पढ़ने को मिलता है। मैं बात कर रहा हूं, विवेक अग्रवाल रचित नई किताब रक्तगंध की।

इस किताब की एक कहानी ‘कशमकश’ मैंने जिस समय पढ़ना शुरू की, दिन भर के काम से बेहद बोझिल था। लग रहा था कि कुछ पन्ने पढ़ कर अगले दिन शेष भाग ख़त्म करूंगा। परंतु विवेक ने कथा में ऐसे शब्दचित्र खींचे कि मेरी नींद भी उड़ी, थकान भी दूर हुई। मैं कथा निरंतर पढ़ता चला गया। तब रुका जब यह कथा ख़त्म हो गई। एकबारगी लगा मैं पढ़ नहीं रहा, कोई फिल्म देख रहा हूं।

विवेक ने इस कथा को किसी स्क्रीनप्ले की तरह लिखा है। इसका एक-एक संवाद सुनाई देता है। एक-एक दृश्य दिखाई देता है। पात्र ज़िंदा हो जाते हैं। पढ़ते-पढ़ते दहल जाते हैं। बेसाख़्ता हंसने लगते हैं!

आप देखने लगते हैं कि सलीम हड्डी मरियल, हड़ियल होने के बावजूद बादाम, काजू, चिकन, गोश्त, शराब किस तरह डकार रहा है। आपको उसकी भारी आवाज़ भी सुनाई देने लगती है। यही हाल मुख्य किरदार इदरीस से संकेत शुक्ला तक के चरित्रों का है।

एक और बड़ी बात, पूरी कहानी अपने नाम के अनुरूप ज़बरदस्त कशमकश या दुविधा से गुज़रती है। पीर बाबा ( नेकी का किरदार ) और इबलिस ( बदी या बुरे कामों के उकसाने वाला शैतानी किरदार)… मनुष्य के भीतर के अच्छे और बुरे दोनों किरदार, इदरीस के सामने बार-बार आ खड़े होते हैं। हालात को लेकर उससे संवाद करते हैं, उसकी कशमकश बढ़ाते हैं। ये दोनों किरदार हम सबके भीतर हैं। उनका शारीरिक अस्तित्व नहीं मगर दोनों किरदार हमें किसी भी काम के अच्छे या बुरे पहलुओं के बारे में बताते रहते हैं। यह बात और है कि दुनियावी बातों और अपनी बुराइयों से ऊपर न उठ पाने की वजह से अक्सर इबलिस या शैतान की जीत हो जाती है। इस तरह इदरीस जैसा कोई भी इंसान ग़लत राह पर चल देता है। परंतु बुरे काम का बुरा नतीजा होता है। इसी तरह कथा में भी इदरीस का एनकाउंटर होता है। ग़लत रास्ते पर चलने, असत्य या बुराई की हार होती है। इस तरह यह कहानी सिर्फ अंडरवर्ल्ड का ही दस्तावेज़ नहीं बन जाती, शाश्वत सत्य की ज़रूरी सत्यकथा बन जाती है।

विवेक ने कहानी को बड़ी रवानगी के साथ लिखा है। अंडरवर्ल्ड की हक़ीक़त से परदा उठाया है। उन्होंने कथानक के अनुरूप संवाद रचे हैं। इसमें अंडरवर्ल्ड की दुनिया में आमतौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द हैं। संवाद भी उसी बैकग्राउंड के हैं। इसमें स्वाभाविक मुंबइया ज़बान का अंदाज़ है।

कहानी में इंदरीस जहां भी जाता है, जिस परिवेश में होता है। उसका खाका किसी फिल्म की तरह ही खींचा गया है। यानी कशमकश को हम दो अर्थों में देख सकते हैं, एक अंडरवर्ल्ड की कथा, एक नये अंदाज़ में; दूसरा सत्यकथा को साहित्यिक, शाब्दिक प्रस्तुति के अभिनव प्रयोग में। मैं दोनों ही तरह से विवेक अग्रवाल के इस बेहतरीन काम की प्रशंसा करता हूं। कहना न होगा, यह कहानी किसी फ़िल्म या वेबसिरीज़ के लिए एकदम उपयुक्त और ज़बरदस्त है। इसमें चुनौती एक ही दिखती है, इबलिस और पीर बाबा के कैरेक्टर्स का प्रस्तुतिकरण।

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कहानी पढ़ते-पढ़ते गीत के भाव भी जाग गए, तो वह भी लिख ही दिया, पेश-ए-ऩजर है:

कशमकश (रक्तगंध) थीम गीत

ख़ूनी ये रिंदा है… इब्लीस यहां पे ज़िंदा है…
नूर की बारिश हो कैसे… वहशी है, ये दरिंदा है…

(1)

कब किस में ये बस जायेगा, फंदा इसका कस जायेगा…
जान कर भी ना जान पायेगा, नादां ये बशिंदा है…

(2)

काला घोड़ा चलता है, दाना उड़के धंसता है…
पानी पार से आता, कभी पहाड़ उतरता है…

(3)

बदला बदला बदला, कब तक कितना बदला…
बदला भी इक बिज़नेस, जाने न ये पगला है…

(4)
ख़बीस रहा न तैयब, पीर बना न सैयद…
समझे भी तो कैसे, सब ख़ौफ़ का धंधा है…
शकील अख़्तर

*रिंदा: वह हिंसक जंतु या पशु जो दूसरे जीवों को चीर-फाड़कर खा जाता है।

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