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बोलवचन में माहिर प्रधानमंत्री ने किसानों के सामने घुटने टेके

प्रधानमंत्री ने शुक्रवार 19 नवंबर, 2021 की सुबह 9 बजे उन कारणों से 3 कृषि कानून वापस ले लिए, जो जनता के सामने स्पष्ट नहीं है। उनकी व्याख्या लोग अपने मन से तरह-तरह से कर रहे हैं। किसने कहने से कानून बनाए गए थे? संसद में विपक्ष को चकमा देकर पारित क्यों करवाए गए? किसानों के विरोध को तरह-तरह से बदनाम क्यों किया? हठधर्मिता क्यों दिखाई? साल भर आंदोलन चला। 600 से ज्यादा लोग मर गए। उसका कोई गम नहीं? बस कह दिया, हम कुछ किसानों को समझा नहीं पाए, माफी मांगते हैं।

एक प्रधानमंत्री हो गए और दूसरा कैमरा हो गया। बीच में बाकी सब गायब। कानून बनाने से पहले मंत्रिमंडल की बैठक में विचार हुआ था या नहीं? कानून वापस लेने से पहले मंत्रिमंडल की बैठक हुई थी या नहीं? कुछ नहीं पता। बस टीवी पर प्रधानमंत्री मोदी दिखते हैं और लोगों तक बादशाह का फरमान पैगाम पहुंच जाता है। जब कृषि कानून बनाए गए थे, तब छोटे किसानों की भलाई की बात दिमाग में थी। अब जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव हारने की नौबत है, तब किसानों की भलाई की बात दिमाग से गायब। हमने कृषि कानून वापस ले लिए, अब हमको वोट दे दो। जीतने के बाद फिर किसानों की भलाई की बात सोचेंगे।

यह भारतीय लोकतंत्र की बानगी है। लोकतंत्र में प्राप्त अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए किस तरह सत्ता पर कब्जा किया जा सकता है, इसके उदाहरण हैं प्रधानमंत्री मोदी। सारे अफसर उनकी कठपुतलियां हैं। न्यायपालिका की चिंताओं से उन्हें सरोकार नहीं। कार्यपालिका की बेहतरी के लिए उनके पास कोई योजना नहीं। पत्रकारों से कोई लेना देना नहीं। सवालों से नफरत और राय मशविरे की आदत नहीं। देश की 100 करोड़ से ज्यादा साधनहीन जनता की बेहतरी का कोई ख्याल नहीं। सिर्फ एक ही बात। खजाने पर कब्जा और कंगालों के वोट। बाकी सब खाली-पीली बोलवचन।

लोग जितने ज्यादा कंगाल रहेंगे, उतने सिर्फ कहने पर वोट देने के लिए मजबूर रहेंगे और सत्ता चलती रहेगी। यही सोचकर मोदी सरकार ने कोरोना महामारी के दौरान ताबड़तोड़ कृषि कानून पारित करवा लिए थे, जिससे कि देश के आत्मनिर्भर किसान पूंजीपतियों पर निर्भर हो जाएं, जो कि देश की बुनियादी आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ है। किसानों ने इसी इरादे को चुनौती दी थी, जिसे मोदी सरकार मानने के लिए तैयार नहीं थी। किसानों की मांग को दुष्प्रचार के जरिए बेदखल करने का अभियान जमकर चला, लेकिन वह काम नहीं आया।

उत्तर प्रदेश में चुनाव हैं और पश्चिमी उप्र के कई गांवों से भाजपा नेताओं को खदेड़ा जा रहा है। धनबल, सत्ता की ताकत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कूटनीति के सहारे फिर से सरकार बनाने के लिए मैदान में उतरी भाजपा के लिए किसान आंदोलन के कारण प्रचार करना मुश्किल हो रहा था। मोदी को सरकार में बनाए रखने वाली राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की टीम ने फीडबैक के आधार पर प्रधानमंत्री से कहा होगा कि कृषि कानून वापस ले लो, नहीं तो भाजपा हार जाएगी। हम प्रधानमंत्री के आचरण से समझ सकते हैं कि देश को कौन चला रहा है और लोकतंत्र पर किस तरह कब्जा करने की कोशिश हो रही है।

मोदी ने नोटबंदी की, कोई जनहित नहीं सधा। कोई काला धन खत्म नहीं हुआ। सारे नोट बैंकों में जमा हो गए। जीएसटी लगाने से छोटे कारोबारी खत्म होने लगे। स्वाभिमान से जीने वालों की संख्या कम होने लगी। कोरोना की आहट मात्र से बगैर सोचे-समझे लॉकडाउन कर दिया, जो देश की बुनियादी अर्थव्यवस्था में कोढ़ में खाज की तरह साबित हुआ। करोड़ों लोगों को पलायन करना पड़ा। और फिर कृषि कानून के जरिए किसानों का स्वाभिमान खत्म करने का प्रयास हद से गुजरने वाली बात थी, जिसके लिए किसानों को आंदोलन करना पड़ा। मोदी को झुकना पड़ा।

किसानों को हालांकि मोदी पर भरोसा नहीं है, क्योंकि वह टीवी पर बहुत कुछ कहते रहते हैं। कितना सत्य, कितना असत्य, कितना लब्बोलुआब, कितनी डींग, कितना मजाक, कितना तथ्य, कितना व्यंग्य, कितना एजेंडा, कुछ समझ में नहीं आता। प्रधानमंत्री बनने के बाद अब तक जितना बोल चुके हैं, वह इस देश के समस्त वेदों, उपनिषदों, पुराणों से ज्यादा है। गिनीज बुक अगर चाहे तो विश्व रिकॉर्ड में सबसे ज्यादा भाषण देने वाले प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी का नाम शामिल कर सकती है। मोदी के बोलने पर बिलकुल भरोसा नहीं है, इसलिए किसानों का आंदोलन जारी रहेगा। जब तक संसद में विधिवत तीनों कानून वापस नहीं ले लिए जाएंगे, राष्ट्रपति दस्तखत नहीं कर देंगे, तब तक किसान डटे रहेंगे।

इसके बाद अगले आंदोलन की योजना बनेगी।

ऋषिकेश राजोरिया

लेखक देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं। देश, समाज, नागरिकों, व्यवस्था के प्रति चिंतन और चिंता, उनकी लेखनी में सदा परिलक्षित होती है।

(लेख में प्रकट विचार लेखक के हैं। इससे इंडिया क्राईम के संपादक या प्रबंधन का सहमत होना आवश्यक नहीं है – संपादक)

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