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गणतंत्र दिवस पर लिखी जाएगी लोकतंत्र की नई परिभाषा

भारत में इक्कीसवीं सदी का इक्कीसवां गणतंत्र दिवस लोकतंत्र की नई परिभाषा लिखने जा रहा है। किसानों के बहाने देश की जनता मनमानी करने पर उतारू मोदी सरकार के सामने है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इवेंट मैनेजमेंट और अपनी भाषण कला के जरिए पूरे देश की जनता को सम्मोहित करते हुए देश का बेड़ा गर्क करने में लगे हुए हैं। उन्होंने अपनी सनक में लोकतांत्रिक और संवैधानिक विचार विमर्श किए बगैर पूरे देश को एक के बाद एक तीन-चार जोरदार झटके दे दिए और पूरे देश को अपने ही रहमो करम पर चलाने की इच्छा मन में पाल ली।

भारत की जनता ने नोटबंदी झेल ली। जीएसटी के नाम पर सरकारी जंजाल झेल लिया। पुलवामा, बालाकोट के प्रचार के झांसे में आकर और किसानों के खातों में 2-2 हजार रुपए जमा होते देखकर 2019 में दूसरी बार भी बहुमत दे दिया। लेकिन मोदी सरकार ने दूसरी बार पदभार संभालते ही नागरिकता संशोधन के बहाने अपने इरादे साफ कर दिए। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सिलसिला शुरू कर दिया। इसी बीच दुनिया में कोरोना महामारी की अफरा-तफरी फैली, तो उन्हें भारत की परिस्थिति नहीं दिखी। कोरोना महामारी को उन्होंने अवसर के रूप में देखा। वह देश पर शिकंजा कसने और जनसाधारण को परतंत्र बनाने की तरकीबें सोचने लगे।

मोदी ने मार्च 2020 में कोरोना का हंगामा खड़ा करते हुए अचानक लोगबंदी कर दी। उन्हें देश की बर्बाद हो रही अर्थव्यवस्था नहीं दिखी। उन्हें सिर्फ विश्व बैंक के डॉलर दिखे, जो कोरोना से निबटने वाले देशों को आसान कर्ज के रूप में बांटे जा रहे थे। जिसके लिए शर्त थी, दो महीने लॉकडाउन, हर नागरिक के लिए मास्क जरूरी और लॉकडाउन के बाद चार महीने सोशल डिस्टेंसिंग। मतलब किसी भी देश की सामाजिक व्यवस्था को अच्छी तरह से अस्त-व्यस्त कर देने के लिए छह महीने का कार्यक्रम। इस दौरान बड़ी संख्या में लोगों के दिमाग की खिड़कियां खुलीं।

जनता को कोरोना से डराते-डराते मध्य प्रदेश की सरकार बदल दी गई। सांप्रदायिक तनाव फैला दिया गया। बिहार में विधानसभा चुनाव हो गए। राम मंदिर का शिलान्यास हो गया। श्रम कानून बदलकर कर्मचारियों के लिए 10-10 घंटे की ड्यूटी जरूरी कर दी गई। जन साधारण को पूंजीपतियों का गुलाम बना देने वाले कानून बना दिए। संसद भवन और उसके आसपास के इलाके में तोड़फोड़ की योजना बना ली। नए संसद भवन का शिलान्यास भी कर दिया। टीवी के समाचार चैनल मोदी सरकार के प्रवक्ता की भूमिका निभाते रहे। हिंदी अखबार मोदी सरकार के पर्चे की तरह छपने लगे और देश की जनता सब देखती रही।

इतना सब करते हुए मोदी सोच रहे होंगे कि अब वह मुगल बादशाह अकबर की कोटि के शासक बन चुके हैं और कुछ भी कर सकते हैं। लेकिन उन्होंने यह विचार नहीं किया होगा कि अकबर के शासन में भी महाराणा प्रताप हुआ करते थे। फर्क यही है कि वह राज तंत्र था, अब लोक तंत्र है। मोदी ने जब किसानों के खेतों को पूंजीपतियों के कब्जे में लाने की कोशिश की तो किसानों ने भी सोच लिया कि मोदी के बनाए ताश के महल को अब गिराना जरूरी है, नहीं तो पता नहीं यह व्यक्ति देश की क्या हालत करेगा। मोदी में इवेंट मैनेजमेंट के साथ भाषण देने के अलावा और कोई विशेष योग्यता दिखाई नहीं देती। देश इवेंट मैनेजमेंट से नहीं चलता।

यही कारण था कि किसानों ने बड़ा आंदोलन करने का इरादा कर लिया। वे संसद में छल-कपट से पारित करा लिए गए तीन किसान विरोधी कानूनों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं और अपनी उपज का सम्मान जनक मूल्य चाहते हैं। सितंबर 2020 में जब ये कानून पारित हुए, उसके बाद से ही किसान सतर्क हो गए थे। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश से विरोध की लहर चली। उसके बाद देश के अन्य किसान संगठन जुड़ते गए। किसानों का आंदोलन अहिंसक है। पुलिस के बल प्रयोग के भी उन्होंने झेल लिया।

किसान अब लाखों की संख्या में दो महीने से राजधानी दिल्ली को घेरकर बैठे हैं और गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में बड़ी परेड करने वाले हैं, जो निस्संदेह राजपथ पर होने वाले सरकार के गणतंत्र दिवस समारोह की आभा को ढंक देगी। किसान आंदोलन को निबटाने के लिए मोदी सरकार ने साम, दाम, दंड, भेद, सभी तरीके अपना लिए। टीवी पर किसानों से संवाद का इवेंट कर लिया। प्रचार तंत्र की पूरी ताकत लगा ली। किसानों से बातचीत का नाटक किया। विज्ञान भवन में 11 बार मंत्रियों ने बैठकें की।  किसान आंदोलन को ठंडा करने के लिए मोदी सरकार ने बहुत फिजूलखर्ची की। लेकिन किसान पीछे नहीं हटे। उन्होंने सरकार के सामने अपना शक्ति प्रदर्शन करने की तैयारी कर ही ली।

अब हालत यह है कि दुनिया भर का मीडिया दिल्ली में मौजूद है। किसान आंदोलन के सामने मोदी के भाषण फीके पड़ रहे हैं। मोदी सरकार के मंत्रियों के चेहरों पर असहायता के चिन्ह छिपाए नहीं छिप रहे हैं। दिल्ली पुलिस गृहमंत्री अमित शाह के ताबे में है। वह गणतंत्र दिवस पर किसानों की समानांतर परेड रोकने की स्थिति में नहीं है। अमित शाह के तेवर ठंडे पड़े हुए हैं। मोदी सोच रहे होंगे कि अब क्या करें? जो हो गया, वह हो गया। कर्मों का फल सभी को भुगतना पड़ता है। और जो नेता लोकतंत्र की दुहाई देते हुए संविधान के नाम पर साजिशाना तरीके से जनता के जीवन के साथ खिलवाड़ करते हैं, उनका हिसाब समय करता अवश्य है।

भारत की जनता ने बहुत से राजा-महाराजा, नवाब-बादशाह, वायसराय, प्रधानमंत्री, मंत्री, मुख्यमंत्री, अफसर देखे हैं। उनमें नरेन्द्र मोदी और अमित शाह भी हैं। सबने अपनी भूमिका निभाई और इतिहास में दफन हो गए। किसी का नाम सुनहरे अक्षरों में है, तो किसी का समय काले अध्याय के रूप में देखा जाता है। मोदी और शाह भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन किसानों के सामने ये फेल हो गए। समय ऐसा है कि अब ये चाहकर भी दबंगई नहीं दिखा सकते, क्योंकि इस समय न तो लोकसभा चुनाव है, न ही पाकिस्तान से खतरा है। सिर्फ पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में प्रचार के जरिए राष्ट्रीय मुद्दे को फीका नहीं किया जा सकता।

जनता की आवाज को दबाने के लिए वे कोलाहल तो पैदा कर सकते हैं, लेकिन किसानों की संकल्प शक्ति के सामने वह बेअसर है। गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में किसानों की ट्रैक्टर परेड स्वतंत्र भारत में पहली बार यह साबित करने वाली है कि लोकतंत्र में देश सिर्फ सरकार से ही नहीं चलता, जनता का भी कोई वजूद होता है।

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